Thursday, February 23, 2012

गुत्थी!



गाँठ खोलने लगी मैं छत के एक कोने मे बैठे !
रंग बिरंगे धागे कुछ इस तरह से साथ थे
मानो कहने लगे “ना उलझो हुम्से बस ऐसे”!


लाल ने पकड़ा था पीले को कुछ ऐसे, और नीला था हरा को बड़े प्यार से जकड़े!
काला था सबसे तेज़, उन सब को अपनी मुट्ठी मे किए!
गुलाबी  भी कुछ कम नही, वोही तो था सब धागो को पकड़े!


मैं खोलती गयी, वो उलझते गये,
बस बदलता गया उस गुत्थी का रूप!
अब कुछ खुछ बात समझ आ रही थी,
कि मैं क्या करने जा रही थी!
बावरी सी हस पड़ी मैं, 
और उच्छाला उसे उपर आसमान में! 
गिर के पहुचि मेरी गुड़िया के सामने!
अब वो खिलौना बन चुकी थी!


मुस्कुराइ मेरी गुड़िया……………….लिए उसे अपने पास!
अब उसे करनी थी उस गोले से जंग!
बस घुमाया गोल गुलाबी को, सारे खुलने लगे थे!
किया उसने अपनी मा को दंग!
लेकिन तभी खेल बदल दिया उसने,
लिए उन धागो को संग!
बनाए फिर से उनके गोले अनेक, वो रंग तो फिर से आपस मे जुड़ने लगे थे!


हस पड़े हम दोनो, फिर गुड़िया अपने काम मे रमझ गयी!


क्या खूब सुलझी ये गुत्थी, 
वो जो सुलझ गयी…………… मैं सब समझ गयी.........!!!








-------------सुकन्या

5 comments:

  1. Oh my! I'd just say that till now this is one of the most profound, thought-provoking and amazing Hindi rhyme I've read in times. Loved it to the core Sukanya. :)

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  2. Is it??
    Thanks a ton Rachit.
    You know what,I have a special liking towards hindi poems and the language. But sadly I see very few in the blogosphere attempting that :(

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  3. Sukku! I just dropped by to tell you that you've got to visit my blog and check out my latest post. I've got something for you there :)

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  4. A very beautifully written poem!

    Pls check out

    http://privytrifles.blogspot.in/2012/03/blog-e-khas-awards.html

    Have something for your there!!

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  5. Thanks for the lovely awards Naresh and ME. Love you guys :)

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